जिसने ठानी जीत की , वही मिसाल बन गईं
मनासा। सागर की रहने वाली रेणु ठाकुर—एक नाम, जो हिम्मत और संघर्ष की मिसाल बन गया। जन्म से दिव्यांग रेणु जुड़वा भाई-बहन में से एक थीं। भाई स्वस्थ था, लेकिन रेणु के हिस्से में आई शारीरिक चुनौतियाँ। समाज ने उसे बेबस समझा, तानों की बारिश की, लेकिन रेणु ने अपनी तक़दीर खुद लिखने की ठानी।
छह साल की मासूम उम्र में जब बच्चे खिलौनों से खेलते हैं, तब रेणु ने एक सपना देखा—कलेक्टर बनने का। यह सपना एक दिव्यांग लड़की का था, जिसे बार-बार कहा जाता, "कब तक पढ़ेगी? क्या बुढ़ापे तक किताबों में ही सिर गड़ाए रखेगी?" लेकिन रेणु ने जवाब दिया अपने संघर्षों से, अपनी मेहनत से।
सपनों पर भारी समाज की बेड़ियाँ, लेकिन परिवार बना ढाल,-
रेणु का परिवार मध्यमवर्गीय था। पिता सरकारी नौकरी में थे, जबकि माँ एक गृहिणी थीं। दो बड़े भाई थे, जिन्होंने कभी उसे यह महसूस नहीं होने दिया कि वह किसी से कम है। जब समाज के ताने उसकी हिम्मत तोड़ने की कोशिश करते, तब घर में माँ और भाई उसकी ताकत बनकर खड़े रहते। माँ ने दोस्त बनकर बेटी के साथ हर कदम पर उसका हौसला बढ़ाया और विश्वास दिलाया—"तू उड़ सकती है, बस अपने हौसलों को मत टूटने देना।"
लेकिन जीवन इतना आसान नहीं था। कोरोना काल में जब पूरा देश लॉकडाउन में था, तब रेणु के जीवन में एक और परीक्षा आई। एक दिन माँ ने सर्दी में राहत देने के लिए उबलता हुआ पानी एक बोतल में दिया, लेकिन गलती से वह पानी उसके पैरों पर गिर गया। जला हुआ पैर दर्द से तड़प उठा। अस्पताल तक जाने का कोई साधन नहीं था, डॉक्टर भी घर नहीं आ सकते थे। एक स्थानीय डॉक्टर ने जैसे-तैसे पट्टी की, लेकिन घाव ठीक होने में एक साल लग गया। दर्द असहनीय था, लेकिन हार नहीं मानी।
आत्महत्या का ख्याल और बचपन की दोस्त की सीख-
संघर्षों की आंधी में कभी-कभी इंसान हिम्मत हार जाता है। एक दिन ऐसा भी आया जब रेणु के दिल में यह सवाल उठा—"मैं कब तक दूसरों के सहारे जिंदगी गुजारती रहूंगी?" मन में निराशा घर कर गई, और उसने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया। जब वह आत्महत्या करने वाली थी, तभी उसकी बचपन की दोस्त आई। उसने दरवाजा खटखटाया, रेणु ने दरवाजा खोला और अपने दिल की पीड़ा बताई। दोस्त ने हाथ थामा और कहा, "हिम्मत मत हार, तू खुद एक मिसाल बन सकती है।"
यह वो मोड़ था जिसने रेणु को फिर से खड़ा कर दिया। उसने खुद से वादा किया कि चाहे जितनी मुश्किलें आएं, वह अपने सपने को पूरा करेगी।
सपनों की उड़ान-
आज वही रेणु ठाकुर रामपुरा महाविद्यालय में अतिथि विद्वान के रूप में पढ़ा रही हैं। उनके साथ एक असिस्टेंट कुमकुम हमेशा रहती हैं, लेकिन यह सहारा अब कमजोरी नहीं, ताकत है। रेणु ने अपने सपनों को मरने नहीं दिया।
80 प्रतिशत दिव्यांग होने के बावजूद, चलने-फिरने में अक्षम होने के बावजूद, हाथों का पूरा साथ न मिलने के बावजूद—रेणु आज सैकड़ों विद्यार्थियों के भविष्य को संवार रही हैं। लेकिन उनकी मंज़िल अभी दूर है। उनका सपना आज भी वही है—कलेक्टर बनने का।
"मैं हार नहीं मानूंगी"-
रेणु कहती हैं, "जीवन में कई बार ऐसा लगा कि अब सब खत्म हो गया, लेकिन हर बार मैंने खुद को उठाया। मेरा शरीर भले ही कमजोर हो, लेकिन मेरा हौसला पहाड़ से भी ऊँचा है। मैं कलेक्टर बनूंगी, समाज की सोच बदलूंगी और हर उस बेटी को हिम्मत दूंगी, जो कभी खुद को कमजोर समझती है।"
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर रेणु की यह कहानी उन सभी महिलाओं के लिए प्रेरणा है, जो समाज की बेड़ियों को तोड़कर अपने सपनों की उड़ान भरना चाहती हैं। रेणु ने साबित कर दिया—"शरीर भले ही सीमित हो, लेकिन हौसले की उड़ान असीमित होती है।" कमजोर शरीर पर मन बलवान हैं।
दिव्यांगता अभिशाप नहीं वरदान हैं